पितृ पक्ष में श्राद्ध पिंडदान, यह पितृ ऋण चुकाने का एक माध्यम है। माता-पिता तथा निकटवर्ती संबधी की मृत्यु उपरांत प्रवास सुखमय एवं क्लेश रहित हो, उन्हें सद्गति प्राप्त हो इसलिए किया जाने वाला संस्कार श्राद्ध है । श्राद्ध के मंत्रों में पितरों को गति देने की सूक्ष्म शक्ति समाहित होती है । ऐसा होने पर भी हिंदू विरोधी श्राद्ध अर्थात ब्राह्मणों का पेट भरने की व्यवस्था, तथा मृत्यु उपरांत पितरों के लिए दान विधि करने की अपेक्षा गरीबों की सेवा करो, उन्हें अन्नदान करो, ऐसा कहकर टिप्पणियां करते हैं । पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने की संकल्पना केवल भारत में ही नहीं है अपितु विदेशों में भी पितरों की शांति के लिए विविध पारंपरिक कृतियां की जाती हैं। उनमें पूर्वजों की शांति के लिए, मुक्ति के लिए शास्त्रोक्त संकल्पना न होने पर भी कम से कम पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता रहनी चाहिए इतनी भावना तो निश्चित होती है। इस तरह विदेशों में अन्य पंथों में जन्मे अनेक लोग अपने पूर्वजों को मुक्ति प्राप्त हो इस हेतु भारत में आकर पिंडदान एवं तर्पण विधि करते हैं। इसलिए श्राद्ध विधि पर टिप्पणी करने वालों को उत्तर दिया जा सके इसलिए जानकारी देने वाला यह लेख यहां दे रहे हैं।

अन्य पंथों में पूर्वजों की आत्मा की शांति हेतु की जाने वाली पपारंपरिक कृतियां –
पारसी पंथ: पारसी बंधुओं के पतेती उत्सव के निमित्त वर्ष के अंतिम 9 दिन पितरों की शांति के दिन के रूप में मनाए जाते हैं, दसवें दिन पतेती नामक त्यौहार मनाया जाता है । इस दिन से ही पारसी नव वर्ष का प्रारंभ होता है। हिंदू संस्कृति में तो आत्मा को अमर माना गया है। वही धारणा पारसी समाज में भी दिखाई पड़ती है। अवेस्ता में (पारसियों के धर्म ग्रंथ में) पितरों को ‘फ्रावशी’ कहा गया है एवं अकाल के समय वे स्वर्ग के सरोवर से उनके वंशजों के लिए पानी लाते हैं ऐसा माना जाता है। इसलिए अपने पूर्वजों की आत्मा को शांति प्राप्त हो इसलिए 9 दिन अलग-अलग विधियां की जाती हैं अंतिम दिन पतेती उत्सव मनाया जाता है। पारसी लोगों की मूल देवता अग्नि है इसलिए वे अग्नि की पूजा करते हैं । इसमें प्रज्वलित अग्नि में चंदन की लकड़ियां डाली जाती हैं। पतेती अर्थात पाप से मुक्त होने का दिन। पापेती अर्थात पापों का नाश करने वाला दिन। यही शब्द का आगे चलकर अपभ्रंश हुआ और पतेती बन गया ऐसे जानकार लोग बताते हैं। साधारणतः अगस्त माह में यह कालावधि आता है।
कैथलिक पंथ: अमेरिका, लैटिन अमेरिका एवं यूरोप इनके अनेक देशों में नवंबर माह में पितरों को तृप्त करने की प्रथा है । यह पूर्वजों की आत्मा से संबंधित होने पर भी इसे उत्सव के रूप में मनाने की प्रथा है। 31 अक्टूबर की संध्या से 2 नवंबर की रात्रि तक यह उत्सव मनाया जाता है। इसमें 31अक्टूबर की शाम को हेलोवीन यात्रा (इसमें हेलो यह होली अर्थात पवित्र का अपभ्रंश है) निकाली जाती है।
1 नवंबर के दिन ऑल सेंट्स डे (समस्त संत दिवस) तथा 2 नवंबर इस दिन ऑल सोल्स डे (सर्व आत्मा दिन) होता है। इस काल को हेलो मास अर्थात पवित्र काल ऐसा भी कहा जाता है। क्रिश्चियन पंथ का होने पर भी यह उत्सव क्राइस्ट पूर्व मूर्ति पूजक रोमन संस्कृति से जुड़ा है। रोमन लोग मृत आत्माओं की संतुष्टि करने के लिए सार्वजनिक बलिदानों सहित लेमुरिया नामक उत्सव मनाते थे। वे श्मशान में जाकर वहां की मृत आत्माओं को केक एवं वाइन अर्पित करते थे । कालांतर से चर्च ने इस दिन को ऑल सोल्स डे के रूप में स्वीकृत करके इसे मनाना प्रारंभ किया यह उत्सव 2 नवंबर के दिन मनाया जाता है।
ऑल सेंट्स डे : इस दिन स्वर्ग प्राप्त ज्ञात अज्ञात सभी पूर्वजों का, संतों का स्मरण किया जाता है । इस दिन शासकीय अवकाश घोषित किया जाता है।
ऑल सोल्स डे : मृत परंतु स्वर्ग प्राप्ति ना हुए ज्ञात अज्ञात सभी पूर्वजों का पाप क्षालन हो इसलिए इस दिन प्रार्थना की जाती है । कुछ देशों में पितरों के आगमन के आनंद में सोल केक नामक मीठा पदार्थ बनाने की प्रथा है। वहां के लोगों का विश्वास है कि वह पदार्थ खाने पर परलोक में रहने वाले मृत आत्माओं को सुख एवं शांति प्राप्त होती है।
बौद्ध पंथ : चीन के बुद्धिस्ट एवं ताओ परंपरा के अनुसार चीनी कैलेंडर के सातवें माह में 15 दिन पूर्वजों के संदर्भ में ‘घोस्ट फेस्टिवल’ (भूतों का /मृतकों का उत्सव) अथवा यूलान फेस्टिवल मनाया जाता है। अगस्त से सितंबर माह की कालावधि में यह दिन आता है। इस सातवें माह को घोस्ट माह (भूतों का या मृतकों का माह) के रूप में जाना जाता है। इस काल में स्वर्ग के तथा नरक के पूर्वजों की आत्माएं भूतल पर आती हैं ऐसी वहां की मान्यता है। इस काल में पूर्वजों को दुःख से मुक्त करने के लिए प्रयत्न किए जाते हैं । उसमें परंपरागत भोजन बनाना (अधिकतर शाकाहारी) धूप जलाना, जाॅस पेपर (बांस के कागज से बने हुए आत्माओं के धन) जलाना आदि किया जाता है। इस कागज से वस्त्र, सोने के गहनों के प्रतीक गहने आदि बनाकर जलाए जाते हैं । इस काल में भोजन करते समय पूर्वज वहां प्रत्यक्ष उपस्थिति हैं इस प्रकार उनके लिए आसान खाली रखकर उन्हें भोजन परोसा जाता है । रात्रि में कागज की नाव, दीये पानी में छोड़कर पूर्वजों को दिशा दिखलाने का प्रयत्न किया जाता है । बौद्ध परंपरा मानने वाले बहुतांश देशों में यह उत्सव थोड़े बहुत अंतर से मनाया जाता है।
विदेश के विविध देशों में पूर्वजों की आत्मा के लिए की जाने वाली परंपरागत कृतियां
यूरोप के देशों में पूर्वजों की शांति के लिए विविध कृतियां।
बेल्जियम : 2 नवंबर के दिन ‘ऑल सोल्स डे’ के दिन अवकाश न होने के कारण पहले दिन अर्थात ऑल सेंट्स डे के दिन कब्रिस्तान में जाकर प्रार्थना की जाती है तथा मृत आत्माओं की कब्र पर दीया जलाया जाता है।
पुर्तगाल : 2 नवंबर के दिन संपूर्ण परिवार के साथ कब्रिस्तान में जाकर प्रार्थना की जाती है तथा शाम को छोटे बच्चे एकत्रित होकर प्रत्येक घर के प्रवेश द्वार के पास जाकर रुकते हैं । वहां उन्हें केक आदि मिष्ठान्न दिए जाते हैं।
जर्मनी : जर्मनी में कब्रों का रंग रोगन किया जाता है । जमीन पर कोयला फैलाकर उस पर लाल रंग के बेरों से चित्र बनाया जाता है तथा कब्र फूल एवं कलियों की माला से सजाई जाती हैं ।अंत में सब लोग मिलकर प्रार्थना करते हैं।
फ्रांस : फ्रांस में चर्च की रात्रिकालीन प्रार्थना के अंत में लोगों द्वारा उनके पूर्वजों के, पितरों के संदर्भ में चर्चा करना आवश्यक माना जाता है। उसके बाद वह उनके घर में भोजन गृह में एक नया सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर शरबत, दही पकवान आदि रखकर सजावट करते हैं तथा पास ही में अग्नि पात्र में लकड़ी का एक बड़ा तना जलाने के लिए रखते हैं । उसके बाद वे सोने चले जाते हैं । थोड़े ही देर में व्यवसायिक वादक वाद्य बजाकर उन्हें नींद से जगाते हैं एवं मृत आत्माओं की ओर से उन्हें आशीर्वाद देते हैं। उस समय सजावट के सारे खाद्य पदार्थ उन वादकों के प्रमुख को दिए जाते हैं।
लैटिन अमेरिका के ब्राजील, अर्जेंटीना, बोलिविया, चिली, इक्वाडोर, पेरू, उरुग्वे आदि देशों में 2 नवंबर के दिन लोग कब्रिस्तान जाकर उनके पूर्वजों को तथा रिश्तेदारों को फूल अर्पित करते हैं।
मेक्सिको : इस देश में इसे ‘मृतकों का दिन’ के रूप में जाना जाता है। इसे स्थानीय भाषा में ‘अल् देओ दे लॉस मुर्तोस’ नाम दिया गया है। मूल रूप से यह उत्सव ईसा पूर्व 3000 वर्षों से पूर्व के कालावधि में ‘अजटेक’ मूर्ति पूजकों का माना जाता है स्पेन ने आक्रमण करके वह संस्कृति समाप्त कर दी। वर्तमान काल में यह उत्सव मूल मेक्सिकन, यूरोपियन एवं स्पेनिश संस्कृति की मिश्रित परंपरा के अनुसार मनाया जाता है । इसमें 1 नवंबर के दिन बाल्य काल में मृत लोगों के लिए तथा 2 नवंबर को वयस्क मृतकों के लिए प्रार्थना की जाती है।
ग्वाटेमाला : इस दिन मांस एवं सब्जियों से बना हुआ ‘फियांब्रे’ नामक पदार्थ बनाकर वह मृतकों की कब्र पर रखा जाता है । इसी तरह इस दिन पतंग उड़ाने का विशेष उत्सव होता है। मृत आत्माओं से संबंध जोड़ने के प्रतीक के रूप में पतंग उड़ाई जाती है।
एशिया खंड के देशों में पितृ पूजन की प्रथा!
एशिया खंड में भारत को छोड़कर अन्य देशों में भी पितृ पूजा की प्रथा किसी न किसी रूप में प्रचलित है। इस तरह बहुतांश सभी स्थानों पर पितरों का आवाहन करते समय विशेष कृतियां की जाती हैं।
चीन : चीन के हान परंपरा अनुसार विगत 2500 वर्षों से ‘क्वींग मिंग ‘अथवा चिंंग मिंग यह उत्सव पूर्वजों की स्मृति में मनाया जाता है। चीन के सूर्य पंचांग के अनुसार यह अवधि निश्चित की जाती है। साधारणतः 4 से 6 अप्रैल इस काल अवधि में यह उत्सव मनाया जाता है इस उत्सव के निमित्त पूर्वजों की कब्रों की सफाई की जाती है। वहां पूर्वजों के लिए पारंपरिक खाद्य पदार्थ रखना, सुगंधित अगरबत्तियां जलाना तथा जाॅस पेपर जलाना, ऐसी अनेक कृतियों की जाती हैं । यह उत्सव चीन, ताइवान, मलेशिया, हांगकांग, सिंगापुर, इंडोनेशिया इन देशों में भी मनाया जाता है।
जापान : जापान में इसे ‘बाॅन फेस्टिवल’ के नाम से जाना जाता है। बुद्धिस्ट कन्फ्यूशियस परंपरा में यह पूर्वजों के सम्मान का उत्सव मानकर मनाया जाता है। इस बारे में मान्यता है कि इस काल अवधि में पूर्वजों की आत्माएं मूल घर के पूजा स्थान पर आती हैं । इसलिए संपूर्ण परिवार मूल अर्थात पैतृक घर में एकत्रित होता है। पूर्वजों की कब्र साफ करके वहां धूप बत्ती लगाते हैं ।प्रतिवर्ष 8 अगस्त से 7 सितंबर इस काल अवधि में यह उत्सव तीन दिन मनाया जाता है । यह महोत्सव जापान में दीपोत्सव के समान मनाया जाता है । जापानी लोगों की मान्यता है कि जब तक पूर्वजों को यह प्रकाश नहीं दिखाएंगे तब तक पूर्वजों को उनके वंशजों के घरों का मार्ग खोजने में अडचन आएगी । इसलिए इस काल में कब्र के चारों तरफ ऊंचे बांस जमीन में गाडकर उस पर रंग-बिरंगे आकाशदीप लटकाते हैं एवं उसके नीचे मोमबत्तियों के प्रकाश में बैठकर लोग उनके पूर्वजों का आवाहन करते हैं । यह उत्सव मूल संस्कृत भाषा के उल्लंबन (उल्टा टांगना) इस शब्द का अपभ्रंश होकर ओबाॅन अथवा बाॅन इस नाम से अब पहचाना जाता है। इस काल में ‘बाॅन ओदोरी’ यह नृत्य किया जाता है । इस नृत्य परंपरा के संदर्भ में कथा है कि गौतम बुद्ध के एक शिष्य महामुद्गलायन (मोकुरेन) इन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा कि उनकी मृत माता मुक्त न होकर भूतों के बंधन में अटक गई है एवं दुखी है। वे अत्यंत चिंतित होकर बुद्ध के पास जाते हैं एवं माता को कैसे मुक्त करूं? यह प्रश्न पूछते हैं तब बुद्ध ने उन्हें अनेक बौद्ध भिक्षुओं को दान देने के लिए कहा। मोकुरेन उस तरह की कृति करते हैं एवं उन्हें उनकी माता भूतों के बंधन से मुक्त होते हुए दिखती है जिसके कारण अत्यंत आनंदित होकर वे नृत्य करते हैं । तब से इस काल अवधि में बाॅन ओदोरी अथवा बाॅन डांस करने की प्रथा चालू हुई ।
हिंदू धर्म के सिद्धांत वैश्विक है एवं उन्हें पंथ का, धर्म का बंधन ना होना एवं अन्य पंथावलंबियों (धर्मावलंबियों) को भी उसका लाभ होना।
हिंदू धर्म के सिद्धांतों को चिरंतन एवं वैश्विक समझा जाता है। हिंदू हो अथवा अन्य किसी भी पंथ का व्यक्ति हो जो धर्म शास्त्रों का पालन करेंगे उन्हें उसका निश्चित ही लाभ होगा। जिस प्रकार दवाई लेने वाले व्यक्ति को फिर वह किसी भी पंथ का, जाति धर्म का हो उसे उसका लाभ होता है, उसी प्रकार हिंदू धर्म शास्त्र अनुसार कृति करने पर सभी को लाभ होता है। वर्तमान में विदेश के अत्यंत प्रगतिशील देशों में बहुतांश 60 से 80% लोग मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं। अमेरिका में भी पांच व्यक्तियों में से एक व्यक्ति को मानसिक रोग है। उसकी तुलना में भारत जैसे विकासशील परंतु आध्यात्मिक देश में उसका प्रमाण कम क्यों है इसका अभ्यास क्यों नहीं किया जाता? केवल आधुनिक विज्ञान एवं भौतिक प्रगति इनके आधार पर सभी समस्याओं पर उपाय नहीं मिलता इसी कारण गया (बिहार) इस तीर्थ क्षेत्र में अनेक विदेशी नागरिक श्राद्ध पिंडदान तर्पण आदि करने के लिए आते हैं।
कंबोडिया : बुद्ध परंपरा के पचूूम बेन (Pchum Ben) को पूर्वजों का दिन (एंसेस्टर्स डे) के रूप में जाना जाता है । ख्मेर परंपरा के कैलेंडर के दसवें माह के 15 दिन यह विधि की जाती है ।(23 सितंबर से 12 अक्टूबर) इस कालावधि में यह विधि की जाती है । इस दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित किया जाता है । इसमें साधारणतः 7 पीढियों तक के मृत रिश्तेदार एवं पूर्वजों का सम्मान किया जाता है। प्रतिवर्ष 15 दिन कुटुंब परिवारजन भोजन पकाकर उनके स्थानीय प्रार्थना स्थल पर लाते हैं । उसके बाद चावल के गोल पिंड बनाकर वह खुले खेतों में तथा हवा में फेंकते हैं । प्रत्येक कुटुंब बौद्ध भिक्षुओं को स्वयं के घर का अन्न (पका हुआ चावल) दान करते हैं। भिक्षुओं को अन्न दान करके मिला हुआ पुण्य सूक्ष्म जगत के दिवंगत पूर्वजों की ओर हस्तांतरित होता है ऐसा समझा जाता है। वह भिक्षु भी संपूर्ण रात्रि जप करके एवं पितृ पूजा का एक कठिन विधि करके उसमें सहभागी होते हैं।
‘हॉलिवुड के प्रसिद्ध अभिनेता सिल्वेस्टर स्टॅलाॅन द्वारा उनके मृत पुत्र की शांति के लिए हरिद्वार में पिंडदान एवं श्राद्ध करना’
हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता सिल्वेस्टर स्टॅलाॅन को अपने मृत पुत्र की आत्मा का अनुभव होता था। इसलिए उन्होंने अपने पुत्र की आत्मा को शांति प्राप्त हो इसलिए परिवार को भारत भेज कर हरिद्वार में पिंडदान एवं श्राद्ध विधि करवा ली। इस विधि के बाद एक भी हिंदू ने कहा क्या कि वह क्रिश्चियन है इसलिए उनका पिंडदान नहीं हो सकता । अर्थात हिंदू धर्म की श्राद्ध विधियों का पंथ आदि से कोई भी संबंध नहीं है।
श्रीलंका : यहां की बुद्ध परंपरा के अनुसार व्यक्ति की मृत्यु उपरांत सातवें दिन, 3 माह पश्चात एवं वर्ष पूर्ति के दिन उन मृतात्माओं को अन्नदान किया जाता है । इसे ‘मतक दानय’ कहा जाता है । अन्नदान करके प्राप्त किये पुण्य की तुलना में उन मृत आत्माओं को उनके लोक में योग्य वस्तुएं प्राप्त होती हैं ऐसा समझा जाता है । जो मृतात्मा उनके लोक में नहीं पहुंच सकते, वे विविध प्रकार के रोग तथा आपत्ति लाकर जीवित व्यक्तियों को कष्ट दे सकते हैं ऐसी उस परिवार की धारणा होती है। इसलिए बौद्ध भिक्षुओं को आमंत्रित करके उन आत्माओं से सुरक्षित रहने के लिए विधियां जाती हैं।
रूस के दिवंगत नेता बोरिस येल्तसिन उनकी आत्मा की शांति के लिए रूस साम्यवादी नेता साझी उमालातोवा द्वारा भारत आकर तर्पण एवं पिंडदान करना।
कट्टर विरोधी येल्तसिन का उमाल तोवा के सपने में आना एवं वे असंतुष्ट हैं इसका उन्हें ज्ञान होना : मार्च 2010 में रूस साम्यवादी नेत्री साझी उमालातोवा ने रूस के पूर्व राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन की आत्मा की शांति के लिए भारत आकर तर्पण एवं पिंडदान किया था । उमालातोवा रूस की पूर्व सांसद थीं एवं वे पार्टी ऑफ पीस एंड यूनिटी की संस्थापक अध्यक्षा थीं। वह साम्यवादी कम्युनिस्ट विचारधारा से संबंधित नेत्री थीं । उमालातोवा, गोर्बाचेव एवं येल्तसिन की कट्टर विरोधी थीं। उनका सोवियत संघ के विघटन के लिए तीव्र विरोध था । सोवियत संघ के विघटन के कारण उन में तीव्र मतभेद भी हुआ था । उमालातोवा का कहना था कि येल्तसिन बार-बार उनके स्वप्न में आते हैं एवं उनसे राजकीय सूत्रों पर वाद विवाद करते हैं । कभी वह अपराधी भावना के कारण दुखी लगते हैं। ऐसा लगता है कि येल्तसिन की आत्मा असंतुष्ट एवं अशांत है।
उमालातोवा द्वारा येल्तसिन की आत्मा की शांति के लिए यज्ञ एवं तर्पण करने की इच्छा प्रदर्शित करना : उमालातोवा ने अपने स्वप्न के बारे में हरिद्वार के देव संस्कृति विश्वविद्यालय के विदेश विभाग के अध्यक्ष डॉ ज्ञानेश्वर मिश्रा से चर्चा की एवं उनसे येल्तसिन की आत्मा की शांति के लिए यज्ञ एवं तर्पण करने की इच्छा प्रकट की।
उमालातोवा द्वारा श्राद्ध तर्पण करने के पश्चात सहजता अनुभव होना एवं उनके द्वारा वैदिक धर्म की दीक्षा लेने का निर्णय लेना : उमालातोवा अपनी इच्छा अनुसार हरिद्वार में पंडित उदय मिश्र एवं पंडित शिवप्रसाद मिश्र के मार्गदर्शन अनुसार यह विधि पूर्ण किए गए। यहां उन्होंने येल्तसिन के लिए तर्पण किया। इसी तरह उन्होंने अपने माता-पिता एवं अफगानिस्तान में मारे गए उनके दोनों भाइयों के लिए भी यज्ञ एवं पिंडदान किया तथा शांति के लिए प्रार्थना की । इसके बाद उमाला तोवा ने कहा श्राद्ध तर्पण करने के बाद मुझे बहुत सहजता अनुभव हो रही है। मुझे लगता है कि मुझ पर कुछ ऋण था जो उतर गया है । तत्पश्चात उमाला तोवा भारतीय संस्कृति एवं तत्वज्ञान द्वारा इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने वैदिक धर्म की दीक्षा लेने का निर्णय लिया।
भारत में शास्त्रों के अनुसार अमावास्या पितरों के लिए ‘सर्वाधिक प्रिय तिथी’ होने का कारण और उस तिथी का महत्त्व
इस संदर्भ में मस्त्यपुराण में एक कथा है l मस्त्यपुराण में अच्छोद सरोवर और अच्छोद नदी का उल्लेख है l
अच्छोदा नाम तेषां तु मानसी कन्यका नदी ॥
अच्छोदं नाम च सरः पितृभिर्निर्मितं पुरा ।
अच्छोदा तु तपश्चक्रे दिव्यं वर्षसहस्रकम् ॥ – मत्स्यपुराण, अध्याय १४, श्लोक 2 और 3
अर्थ : भगवान मरिची के वंशज जहाँ रहते थे, वहां अच्छोदा नामक नदी बहती है, जो पितृगणों की मानसकन्या है l प्राचीन काल में पितरों ने यहां अच्छोद नाम का एक सरोवर निर्माण किया था l पूर्वकाल में अच्छोदा ने (अग्निष्वात्त की मानसपुत्री) 1 सहस्र वर्षे घोर तपश्चर्या की थी l काश्मीर भारत का प्राचीन राज्य है l मरिची का पुत्र कश्यप के नाम से पूर्वकाल में काश्मीर का नाम ‘कश्यपमर’ अथवा ‘कशेमर्र’ था l मत्स्यपुराण में कहा है कि, सोमपथ नाम के स्थान पर मरिची का पुत्र अग्निष्वात्त नाम के देवता के पितृगण निवास करते थे l कुछ समय उपरांत वही पर अग्निष्वात्त की मानसपुत्री अच्छोदा ने 1 सहस्र वर्ष घोर तपस्या की l उसके तपस्या से प्रसन्न हो कर देवतासम सुंदर और कांतीवान पितृगण वरदान देने के लिए अच्छोदा के पास आये l सभी पितरों का रूप मन को मोहने वाला था l उनका सौंदर्य और रूप से प्रभावित होकर अच्छोदा ‘अमावसु’ नाम के एक पितर पर आसक्त हुई l पितृगण के विषय में इस प्रकार की इच्छा करना, यह बडा अपराध था l तब अमावसुने तुरंत अच्छोदा की याचना का अस्वीकार करते हुए उसे शाप दिया l जिस पुण्यतिथी को अमावसुने अच्छोदा के वासना का अस्वीकार किया था, उसके मर्यादा का पालन करना इस गुण के कारण वह तिथी उसके नाम से ही ‘अमावास्या’ इस नाम से प्रसिद्ध हुई और तब से हमारे पितरों की वह सर्वाधिक प्रिय तिथी है l
विदेश में रहने वाले भारतीयों का दूरभाष द्वारा पुरोहितों से श्राद्ध और तर्पण विधी कराना अयोग्य ! : गत कुछ वर्षों से विदेश में रहने वाले भारतीय अपने पितरों का तर्पण और पिंडदान विधी करने के लिए उज्जैन एवं गया के पुरोहितों की सहायता से दूरभाष के द्वारा बुकिंग करते है l कुछ आचार्य जी ने इसे स्वीकृती दी है l वे दूरभाष से बुकिंग लेते समय यजमान से संकल्प करवा कर लेते है और यजमानजी द्वारा बताए नाम से पुरोहित तर्पण और पिंडदान करते है l आपद्धर्म के काल में कुछ परिस्थिती में ब्राह्मण से तर्पण करवाया जा सकता है; परंतु केवल धन के लोभ के कारण विदेश में रह कर इस प्रकार से दूरभाष के द्वारा संकल्प कर के श्राद्ध की विधी करना अयोग्य है l पितरों के मुक्ति के लिए स्वयं तीर्थस्थान जाकर देवताओं के साक्षी होकर अपने पितरों का तर्पण और पिंडदान करना चाहिए l इस से पितरों की तृप्ती होकर उनकी मुक्ति का मार्ग खुल जाता है l
हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता सिल्वेस्टर स्टॅलॉन अपने मृत बेटे के शांति के लिए पूरे परिवार को भारत भेज कर हरिद्वार में उसका पिंडदान और श्राद्ध करवाते है और विदेश स्थित हिंदू हमे इसके लिए समय नहीं ऐसे बताते है l यह अयोग्य ही है !
हिंदु धर्म में श्राद्ध का महत्त्व का घटक/ भाग, पवित्र दर्भ का महत्त्व : महाभारत की कथा के अनुसार गरुडदेव स्वर्ग से अमृत कलश लाते समय कुछ समय के लिए उन्होंने वह कलश दर्भ पर रखा था l दर्भ पर अमृत कलश रखने से दर्भ को पवित्र समझा जाता है l
श्राद्ध के समय दर्भ से बनी अंगुठी अनामिका में धारण करने की परंपरा है l ऐसे कहा जाता है की, दर्भ के अग्रभाग में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और मूल में भगवान शिव निवास करते है l श्राद्धकर्म में दर्भ की अंगुठी धारण करने से ‘हमने पवित्र होकर हमारे पितरों के शांति के लिए श्राद्धकर्म और पिंडदान किया’, ऐसे उसका अर्थ है l
सुवर्णदान की अपेक्षा अपने पितरों के लिए पिंडदान और अन्नदान करना श्रेष्ठ होता है, यह कर्ण के उदाहण से ध्यान में आता है : एक प्रचलित कथा के अनुसार कर्ण के मृत्यु के उपरांत उसकी आत्मा स्वर्ग में गई, तब उसे भोजन करने के लिए बहुत अधिक प्रमाण में सोना और आभूषण दिए गये l यह देख कर कर्ण की आत्मा दुविधा में पड गई l तब उसने इंद्रदेव को पूछा की, उसे भोजन के स्थान पर सोना क्यों दिया गया ? तब इंद्र ने कर्ण को बताया, ‘आपने अपने संपूर्ण जीवन में सुवर्णदान ही किया; परंतु कभी भी अपने पितरों के लिए अन्नदान नहीं किया’ तब कर्ण ने बताया, ‘मुझे मेरे पूर्वजों के विषय में जानकारी नहीं थी l इसलिए मैं उनके लिए कोई दान नहीं कर पाया l’ कर्ण को उसकी चूक सुधारने एक संधी दी गई और उसे पितृपक्ष के 15 दिन पृथ्वी पर फिर से भेजा गया l वहां उसने अपने पूर्वजों का स्मरण कर के उनका श्राद्ध किया और अन्नदान किया, और उनके लिए तर्पण किया l इस प्रचलित कथा से हम समझ सकते कि, सुवर्णदान से अपने पितरों के लिए पिंडदान, अन्नदान और तर्पण करने का महत्त्व अधिक है !
धर्मशास्त्र बिना अभ्यास किए हिन्दू विरोधियों का श्राद्ध जैसे महत्त्व के विधियों पर आरोप करना अर्थात अज्ञानमूलक ! – हिन्दू विरोधी श्राद्ध के संदर्भ में ब्राह्मणों को लक्ष्य कर के विविध आरोप करते है l श्राद्धादि विधी करवा लेने के संदर्भ में ब्राह्मणों के विषय में जो उल्लेख आता है, उस संबंध में जानकर लेने से इस आरोपों का झूठ ध्यान में आता है l उदाहरणार्थ श्राद्धकर्म करने वाले ब्राह्मणों के संदर्भ में शास्त्रग्रंथ में कुछ नियम बताये है, उदा. ब्राह्मण वेदज्ञानी होने चाहिए l वे पतित पावन होने चाहिए l वे शांतचित्त, नियम-धर्म से आचरण करनेवाले, तप करने वाले, धर्म शास्त्र पर श्रद्धा रखने वाले, पिता का आदर करने वाले, आचारवान और अग्निहोत्री होने चाहिए l इस योग्यता का ब्राह्मण नहीं मिलता, तो तत्त्वज्ञानी योगी को बुलाकर श्राद्धकर्म करे l ऐसे योगी भी नहीं मिले, तो किसी वानप्रस्थी को अन्नदान कर के श्राद्धकर्म करे l वानप्रस्थी भी नही मिले तो मोक्ष की इच्छा रखने वाले अर्थात् साधकवृत्ति गृहस्थ को अन्नदान करे l
जो ब्राह्मण ध्यान-पूजा, यज्ञ आदि नियमित कर्म नहीं करता, उसे बुलाकर श्राद्धकर्म करने से पितरों को आसुरी योनि प्राप्त होती है l इतना ही नही मद्यपान, वेश्यागमन करने वाले, असत्य बोलने वाले, माता-पिता, गुरु इनका आदर न करने वाले, चरित्रहीन, वेदों की निंदा करनेवाले, ईश्वर पर विश्वास न रखने वाले, साथ ही उपकार न माननेवाले ऐसे ब्राह्मणों को श्राद्धकर्म करने के लिए नहीं बुलाया जाना चाहिए, उन्हें दक्षिणा भी ना दें l जो दान सदाचारी व्यक्ति को दिया जाता है, उसे ही ‘दान’ कहते है l दान देते समय परिवार की उपेक्षा कर के दान ना दे l
शास्त्र में बताये गये नियमों के कारण विरोधियों के आरोपों का झूठापन स्पष्ट होता है l
संकलक : श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिती