प्रस्तुत लेख में ‘नारायणबली, नागबलि व त्रिपिंडी श्राद्ध’ के विषय में अध्यात्मशास्त्रीय विवेचना की गई है। इसमें मुख्य रुप से इन विधियों के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण सूचनाएं, विधि का उद्देश्य, योग्य काल, योग्य स्थान, विधि करने की पद्धति एवं विधि करने से हुई अनुभूतियों का समावेश है ।
नारायणबलि, नागबलि एवं त्रिपिंडी श्राद्ध से संबंधित महत्त्वपूर्ण सूचनाएं
शास्त्र : ये अनुष्ठान अपने पितरों को (उच्च लोकों में जाने हेतु) गति मिले, इस उद्देश्य से किए जाते हैं । शास्त्र कहता है कि उनके लिए ‘प्रत्येक व्यक्ति अपनी वार्षिक आय का 1/10 (एक दशांश) व्यय करे’। यथाशक्ति भी व्यय किया जा सकता है।
ये अनुष्ठान कौन कर सकता है ?:
ये काम्य अनुष्ठान हैं । यह कोई भी कर सकता है । जिसके माता-पिता जीवित हैं, वह भी कर सकते हैं । अविवाहित भी अकेले यह अनुष्ठान कर सकते हैं । विवाहित होने पर पति-पत्नी बैठकर यह अनुष्ठान करें ।
निषेध : स्रियों के लिए माहवारी की अवधि में ये अनुष्ठान करना वर्जित है । स्त्री गर्भावस्था में 5वें मास के पश्चात यह अनुष्ठान न करे । घर में विवाह, यज्ञोपवीत इत्यादि शुभ कार्य हो अथवा घर में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए, तो यह अनुष्ठान एक वर्ष तक न करें ।
पद्धति : अनुष्ठान करने हेतु पुरुषों के लिए धोती, उपरना, बनियान तथा महिलाओं के लिए साडी, चोली तथा घाघरा इत्यादि नए वस्त्र (काला अथवा हरा रंग न हो) लगते हैं । ये नए वस्त्र पहनकर अनुष्ठान करना पड़ता है। तत्पश्चात ये वस्त्र दान करने पडते हैं। तीसरे दिन सोने के नाग की (सवा ग्राम की) एक प्रतिमा की पूजा कर दान किया जाता है।
अनुष्ठान में लगनेवाली अवधि : उपरोक्त तीनों अनुष्ठान पृथक-पृथक हैं। नारायण-नागबलि अनुष्ठान तीन दिनों का होता है तथा त्रिपिंडी श्राद्ध अनुष्ठान एक दिन का होता है। उपरोक्त तीनों अनुष्ठान करने हों, तो तीन दिन में संभव है। स्वतंत्र रूप से एक दिन का अनुष्ठान करना हो, तो वैसा भी हो सकता है।
नारायणबलि:
उद्देश्य : ‘दुर्घटना में मृत अथवा आत्महत्या किए हुए मनुष्य का क्रिया कर्म न होने से उसका लिंगदेह (सूक्ष्म शरीर) प्रेत बनकर भटकता रहता है और कुल में संतान की उत्पत्ति नहीं होने देता । उसी प्रकार, वंशजों को अनेक प्रकार के कष्ट देता है । ऐसे लिंगदेहों को प्रेतयोनि से मुक्त कराने के लिए नारायण बलि करनी पड़ती है।
अनुष्ठान (विधि):
अनुष्ठान करने का उचित समय: नारायण बलि का अनुष्ठान करने के लिए किसी भी मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तथा द्वादशी उचित होती है। एकादशी को अधिवास (देवता की स्थापना) कर द्वादशी को श्राद्ध करें । (वर्तमान में अधिकतर लोग एक ही दिन अनुष्ठान करते हैं ।) संतति की प्राप्ति हेतु यह अनुष्ठान करना हो, तो उस दंपति को स्वयं यह अनुष्ठान करना चाहिए । यह अनुष्ठान श्रवण नक्षत्र, पंचमी अथवा पुत्रदा एकादशी में से किसी एक तिथि पर करने से अधिक लाभ होता है ।
अनुष्ठान करने के लिए उचित स्थान : नदी तीर जैसे पवित्र स्थान पर यह अनुष्ठान करें ।
पद्धति:
पहला दिन : प्रथम तीर्थ में स्नान कर नारायणबलि संकल्प करें । दो कलशों पर श्री विष्णु एवं वैवस्वत यम की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित कर उनकी षोडशोपचार पद्धति से पूजा करें । तत्पश्चात, उन कलशों की पूर्व दिशा में दर्भ (कुश) से एक रेखा खींचकर उस पर कुश को उत्तर-दक्षिण बिछा दें और ‘शुन्धन्तां विष्णुरूपी प्रेतः’ यह मंत्र पढ़कर दस बार जल छोड़ें ।
तत्त्पश्चात दक्षिण दिशा में मुख कर अपसव्य (यज्ञोपवीत दाहिने कँधे पर) होकर विष्णुरूपी प्रेत का ध्यान करें । उन फैलाए हुए कुशों पर मधु, घी तथा तिल से युक्त दस पिंड ‘काश्यपगोत्र अमुकप्रेत विष्णुदैवत अयं ते पिण्डः’ कहते हुए दें । पिंडों की गंधादि से पूजा कर, उन्हें नदी अथवा जलाशय में प्रवाहित कर दें । यहां पहले दिन का अनुष्ठान पूरा हुआ ।
दूसरा दिन : मध्याह्न में श्रीविष्णु की पूजा करें । पश्चात 1, 3 अथवा 5 ऐसी विषम संख्या में ब्राह्मणों को निमंत्रित कर एकोद्दिष्ट विधि से उस विष्णु रूपी प्रेत का श्राद्ध करें । यह श्राद्ध ब्राह्मणों के पाद प्रक्षालन से आरंभ कर तृप्ति-प्रश्न (हे ब्राह्मणों, आप लोग तृप्त हुए क्या ?, ऐसे पूछना) तक मंत्र रहित करें । श्री विष्णु, ब्रह्मा, शिव एवं सपरिवार यम को नाम मंत्रों से चार पिंड दें । विष्णु रूपी प्रेत के लिए पांचवां पिंड दें । पिंड पूजा कर उन्हें प्रवाहित करने के पश्चात ब्राह्मणों को दक्षिणा दें । एक ब्राह्मण को वस्त्रालंकार, गाय एवं स्वर्ण दें । तत्पश्चात प्रेत को तिलांजलि देने हेतु ब्राह्मणों से प्रार्थना करें । ब्राह्मण कुश, तिल तथा तुलसी पत्रों से युक्त जल अंजुलि में लेकर वह जल प्रेत को दें । पश्चात श्राद्ध कर्ता स्नान कर भोजन करे । धर्मशास्त्रों में लिखा है कि इस अनुष्ठान से प्रेतात्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है ।
स्मृतिग्रंथों के अनुसार नारायणबलि एवं नागबलि एक ही कामना की पूर्ति करते हैं, इसलिए दोनों अनुष्ठान साथ-साथ करने की प्रथा है । इसी कारण इस अनुष्ठान का संयुक्त नाम ‘नारायण-नागबलि’ पड़ा।
नागबलि
उद्देश्य : पहले के किसी वंशज से नाग की हत्या हुई हो, तो उस नाग को गति न मिलने से वह वंश में संतति के जन्म को प्रतिबंधित करता है । वह किसी अन्य प्रकार से भी वंशजों को कष्ट देता है । इस दोष के निवारणार्थ यह अनुष्ठान किया जाता है ।
अनुष्ठान (विधि) : संतति की प्राप्ति के लिए यह अनुष्ठान करना हो, तो उस दंपति को अपने हाथों से ही यह अनुष्ठान करना चाहिए । अनुष्ठान पुत्र प्राप्ति के लिए करना हो, तो श्रवण नक्षत्र, पंचमी अथवा पुत्रदा एकादशी, इनमें से किसी एक तिथि पर करने से अधिक लाभ होता है ।’
नारायण-नागबालि विधि करते समय हुई अनुभूतियां : नारायण-नागबलि अनुष्ठान करते समय वास्तविक प्रेत पर अभिषेक करने का दृश्य दिखाई देना तथा कर्पूर लगाने पर प्रेत से प्राणज्योति बाहर निकलती दिखाई देना।
‘नारायण-नागबलि अनुष्ठान में नारायण की प्रतिमा की पूजा करते समय मुझे लगा कि ‘इस अनुष्ठान से वास्तव में पूर्वजों को गति मिलने वाली है ।’ उसी प्रकार, आटे की प्रेत प्रतिमा पर अभिषेक करते समय लग रहा था जैसे मैं वास्तविक प्रेत पर ही अनुष्ठान कर रहा हूं । अंत में प्रतिमा की छाती पर कर्पूर लगाने पर प्रेत से प्राण ज्योति बाहर जाती दिखाई दी और मेरे शरीर पर रोमांच उभरा ।
त्रिपिंडी श्राद्ध:
व्याख्या : तीर्थ स्थल पर पितरों को संबोधित कर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे त्रिपिंडी श्राद्ध कहते हैं ।
उद्देश्य : हमारे लिए अज्ञात, सद्गति को प्राप्त न हुए अथवा दुुर्गति को प्राप्त तथा कुल के लोगों को कष्ट देनेवाले पितरों को, उनका प्रेतत्व दूर होकर सद्गति मिलने के लिए अर्थात भूमि, अंतरिक्ष एवं आकाश, तीनों स्थानों में स्थित आत्माओं को मुक्ति देने हेतु त्रिपिंडी करने की पद्धति है । श्राद्ध साधारणतः एक पितर अथवा पिता-पितामह (दादा)-प्रपितामह (परदादा) के लिए किया जाता है । अर्थात, यह तीन पीढ़ियों तक ही सीमित होता है । परंतु त्रिपिंडी श्राद्ध से उसके पूर्व की पीढियों के पितरों को भी तृप्ति मिलती है । प्रत्येक परिवार में यह विधि प्रति बारह वर्ष करें; परंतु जिस परिवार में पितृदोष अथवा पितरों द्वारा होने वाले कष्ट हों, वे यह विधि दोष निवारण हेतु करें ।
विधि :
विधि के लिए उचित काल : त्रिपिंडी श्राद्ध के लिए अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा – ये तिथियां एवं संपूर्ण पितृपक्ष उचित होता है ।
गुरु शुक्रास्त, गणेशोत्सव एवं शारदीय नवरात्र की कालावधि में यह विधि न करें । उसी प्रकार, परिवार में मंगलकार्य के उपरांत अथवा अशुभ घटना के उपरांत एक वर्ष तक त्रिपिंडी श्राद्ध न करें । अत्यंत अपरिहार्य हो, उदा. एक मंगलकार्य के उपरांत पुनः कुछ माह के अंतराल पर दूसरा मंगलकार्य नियोजित हो, तो दोनों के मध्यकाल में त्रिपिंडी श्राद्ध करें ।
विधि हेतु उचित स्थान : त्र्यंबकेश्वर, गोकर्ण, महाबलेश्वर, गरुडेश्वर, हरिहरेश्वर (दक्षिण काशी), काशी (वाराणसी) – ये स्थान त्रिपिंडी श्राद्ध करने हेतु उचित हैं ।
पद्धति : ‘प्रथम तीर्थ में स्नान कर श्राद्ध का संकल्प करें । तदुपरांत महाविष्णु की एवं श्राद्ध के लिए बुलाए गए ब्राह्मणों की पूजा श्राद्ध विधि के अनुसार करें । तत्पश्चात यव (जौ), व्रीहि (कीटक न लगे चावल) एवं तिल के आटे का एक-एक पिंड बनाएं । दर्भ फैलाकर उस पर तिलोदक छिड़क कर पिंडदान करें ।
यवपिंड (धर्मपिंड) : पितृवंश के एवं मातृवंश के जिन मृत व्याक्तियों की उत्तरक्रिया न हुई हो, संतान न होने के कारण जिनका पिंडदान न किया गया हो अथवा जो जन्म से ही अंधे-लूले थे (नेत्रहीन-अपंग होने के कारण जिनका विवाह न हुआ हो इसलिए संतान रहित), ऐसे पितरों का प्रेतत्व नष्ट हो एवं उन्हें सद्गति प्राप्त हो, इसलिए यव पिंंड प्रदान किया जाता है। इसे धर्म पिंड की संज्ञा दी गई है ।
मधुरत्रययुक्त व्रीहीपिंड : पिंड पर चीनी, मधु एवं घी मिलाकर चढाते हैं; इसे मधुरत्रय कहते हैं । इससे अंतरिक्ष में स्थित पितरों को सद्गति मिलती है ।
तिलपिंड : पृथ्वी पर क्षुद्र योनि में रहकर अन्यों को कष्ट देने वाले पितरों को तिलपिंड से सद्गति प्राप्त होती है ।
इन तीनों पिंडों पर तिलोदक अर्पित करें । तदुपरांत पिंडों की पूजा कर अघ्र्य दें । श्री विष्णु के लिए तर्पण करें । ब्राह्मणों को भोजन करवाकर उन्हें दक्षिणा के रूप में वस्त्र, पात्र, पंखा, पादत्राण इत्यादि वस्तुएं दें ।’
पितृदोष हो, तो माता-पिता के जीवित होते हुए भी पुत्र का विधि करना उचित : श्राद्धकर्ता की कुंडली में पितृदोष हो, तो दोष दूर करने हेतु माता-पिता के जीवित होते हुए भी इस विधि को करें ।
विधि के समय केश मुंडवाने की आवश्यकता : श्राद्धकर्ता के पिता जीवित न हों, तो उसे विधि करते समय केश मुंडवाने चाहिए । जिसके पिता जीवित हैं, उस श्राद्धकर्ता को केश मुंडवाने की आवश्यकता नहीं है।
घर का कोई सदस्य विधि कर रहा हो, तब अन्य सदस्यों द्वारा पूजा इत्यादि होना उचित है। त्रिपिंडी श्राद्ध में श्राद्धकर्ता के लिए ही अशौच होता है, अन्य परिजनों के लिए नहीं । इसलिए घर का कोई सदस्य विधि कर रहा हो, तो अन्यों के लिए पूजा इत्यादि बंद करना आवश्यक नहीं है ।