सनातन धर्म की मूलतत्त्वों को समझकर साधना करें और देव, देश तथा धर्म के रक्षक बनें

*प्रस्तावना:*
दिल्ली के ‘भारत मंडपम’ में 13 और 14 दिसंबर को सनातन संस्था द्वारा ‘सनातन राष्ट्र शंखनाद महोत्सव’ का आयोजन होने जा रहा है। इस अवसर पर पुनः एक बार हिंदू समाज एकत्रित होने जा रहा है। हिंदुओं को उनके गौरवशाली और पराक्रमी इतिहास की याद दिलाकर नई चेतना जागृत होगी। इसी पृष्ठभूमि में हिंदुत्व के मूल सिद्धांतों को समझकर धर्मरक्षक कैसे बन सकते हैं, इस पर एक विचार प्रस्तुत है।

*देशविरोधी तत्वों द्वारा भारतीय अस्मिता और संस्कृति को मिटाने का प्रयास:*
सनातन धर्म में निहित हिंदुत्व के सिद्धांतों और मूल्यों का अपमान करके राष्ट्रहितों को हानि पहुँचाना आज सामान्य बात हो गई है। संस्कृति, सभ्यता और महापुरुषों के विरुद्ध नकारात्मक वातावरण बनाना “प्रगतिशीलता” कहलाने लगा है। ‘सनातन धर्म’ और ‘हिंदुत्व’ पर प्रक्षोभक वक्तव्य देकर अल्पसंख्यकों की खुशामद के लिए भारतीय अस्मिता और संस्कृति को नष्ट करने का षड्यंत्र चल रहा है। ऐसे अपमानजनक वक्तव्यों पर हिंदुओं द्वारा विरोध प्रकट करना भी “अवैध” ठहराया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है।

*आक्रमणों से क्षात्रतेज क्षीण हुआ:*
सदियों से सहिष्णुता, अहिंसा और उदारता का उपदेश देते-देते क्या हिंदू कायर और संघर्षविहीन हो गए? यह प्रश्न आज गंभीर है। मुगल काल से “अतिथि देवो भव” जैसे सद्गुणों का प्रचार हुआ, परंतु आत्मसम्मान और अस्तित्व को संकट में डालकर भी इन गुणों से चिपके रहना उचित नहीं था। जब मंदिर, मठ, तीर्थस्थल, ज्ञान-विज्ञान और सांस्कृतिक विरासत नष्ट हो रहे थे, तब भी हम मौन रहे। धर्मांतरण, नरसंहार और लूट होते समय भी हम धर्मनिरपेक्षता की जड़ व्याख्या में बंधे रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदू समाज का मनोबल खंडित होता गया। 712 ई. से लेकर मुगल और अंग्रेज़ी काल तक का इतिहास हमें केवल दास नहीं, बल्कि मानसिक रूप से भी गुलाम बना गया। सहिष्णुता बची रही, परंतु वीरता और संघर्षशीलता लुप्त हो गई; क्षात्रतेज मंद पड़ गया।

*‘शस्त्रमेव जयते’ का स्मरण कराने का समय:*
वरिष्ठ लेखक और राष्ट्रवादी विचारक स्वर्गीय भानूप्रताप शुक्ल ने कहा था कि यदि देश में एक वर्ग दुसरे पर हिंसा, लूट, बलात्कार और आगजनी कर रहा है, तो पीड़ित समाज को मौन नहीं रहना चाहिए। उन्होंने पूछा था — “क्या अपना घर जलने दें, अपनी बेटियों पर अत्याचार होने दें?”
धर्म और राष्ट्र की रक्षा सर्वोच्च कर्तव्य है। जब राष्ट्र में अन्याय और अधर्म बढ़ता है, तब चाणक्य ने भी कुशासन के विरुद्ध प्रहार किया था। हिंदू परंपरा केवल ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की नहीं, बल्कि ‘शस्त्रमेव जयते’ की भी है। हम महायोद्धाओं के वंशज हैं, फिर भी केवल अशोक के कलिंग युद्ध के बाद अहिंसा की ओर इतने आकर्षित कैसे हो गए — यह प्रश्न अब भी खड़ा है।

*तेजस्वी और धर्माभिमानी हिंदू ही धर्म व देश की रक्षा कर सकते हैं:*
भारत की गौरवशाली संस्कृति की सुरक्षा के लिए सशक्त हिंदुत्व का तेज पुनः प्रकट होना आवश्यक है। वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण और महाभारत के सिद्धांतों को हमने आत्मसात नहीं किया। धर्मपालन का सही स्वरूप न समझने और उसका आचरण न करने का लाभ हिंदूविरोधी मानसिकता वालों ने उठाया।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने कहा था कि हिंदू समाज को शरणागत भाव छोड़कर धर्म का तेज पुनः प्रकट करना होगा। जागरूक हिंदू समाज ही राष्ट्र की रक्षा कर सकता है; आलोचना हो, उपहास हो किंतु धर्माभिमानी और तेजस्वी हिंदू ही धर्म और देश दोनों के रखवाले बन सकते हैं।

*हिंदुओ, शांति के लिए शक्ति के उपासक बनो:*
आज देशभक्त राष्ट्रवादी लोगों को “जातिवादी” कहकर बदनाम किया जा रहा है। पाकिस्तान या जिहादी प्रवृत्तियों के विरोध में आक्रोश व्यक्त करने पर या समान नागरिक संहिता, बांग्लादेशी–पाकिस्तानी–रोहिंग्या घुसपैठियों की खदेड़ने की मांग पर भी हिंदुओं पर संकीर्णता का आरोप लगाया जाता है।
अब समय आ गया है कि राष्ट्रविरोधी शक्तियों के विरुद्ध संगठनबद्ध होकर प्रतिकार किया जाए। महर्षि अरविंद ने कहा था, “हमने शक्ति का त्याग किया, इसलिए शक्ति ने हमें त्याग दिया।” अतः सनातन धर्म के सिद्धांतों को समझिए और शांति के लिए ‘शक्ति’ के उपासक बनिए!

 

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