विश्वको सनातन धर्मकी एक अनमोल देन है ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ – संत गुलाबराव महाराजजीसे किसी पश्चिमी व्यक्तिने पूछा, ‘भारतकी ऐसी कौनसी विशेषता है, जो न्यूनतम शब्दोंमें बताई जा सकती है ?’ तब महाराजजीने कहा, ‘गुरु-शिष्य परंपरा’ । इससे हमें इस परंपराका महत्त्व समझमें आता है । ऐसी परंपराका दर्शन करवानेवाला पर्व है, गुरुपूर्णिमा ! माया के भवसागर से शिष्य को एवं भक्तों को बाहर निकालनेवाले, उनसे आवश्यक साधना करवा कर लेनेवाले एवं कठिन समय में उनको अत्यंत निकटता एवं निरपेक्ष प्रेम से सहारा देकर संकट मुक्त करने वाले गुरु ही होते हैं । ऐसे परम पूजनीय गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा । प्रस्तुत लेख में हम गुरुमहिमा, गुरुपूर्णिमा का महत्व तथा यह उत्सव मनाने की पद्धति जानेंगे ।
गुरुपूर्णिमा मनाने की तिथि एवं उद्देश्य :
गुरुपूर्णिमा यह उत्सव सभी जगह आषाढ़ माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस वर्ष गुरुपूर्णिमा 21 जुलाई को है । प्रस्तुत लेख से गुरुपूर्णिमा का महत्व जानकर उसके अनुसार कृति करने का प्रयास करेंगे और गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करेंगे। गुरु अर्थात ईश्वर का सगुण रूप ! वर्ष भर गुरु अपने भक्तों को अध्यात्म का ज्ञान देते हैं । इसलिए गुरु के प्रति अनन्य भाव से कृतज्ञता व्यक्त करना, यही गुरुपूर्णिमा मनाने का उद्देश्य है ।
गुरुमहिमा : वर्तमान में अधिकांश लोगों का दैनिक जीवन भागदौड़ तथा समस्याओं से ग्रसित है । जीवन में मानसिक शांति एवं आनंद प्राप्त करने के लिए कौन-सी साधना, कैसे करें, इसका जो यथार्थ ज्ञान कराते हैं, वे हैं गुरु ! गुरुका ध्यान शिष्यके भौतिक सुखकी ओर नहीं, अपितु केवल उसकी आध्यात्मिक उन्नतिपर होता है । गुरु ही शिष्यको साधना करनेके लिए प्रेरित करते हैं, चरण दर चरण साधना करवाते हैं, साधनामें उत्पन्न होनेवाली बाधाओंको दूर कर साधनामें टिकाए रखते हैं एवं पूर्णत्वकी ओर ले जाते हैं । गुरुके संकल्पके बिना इतना बडा एवं कठिन शिवधनुष उठा पाना असंभव है; परन्तु गुरुकी प्राप्ति हो जाए, तो यह कर पाना सुलभ हो जाता है । श्री गुरुगीतामें ‘गुरु’ संज्ञाकी उत्पत्तिका वर्णन इस प्रकार किया गया है।
गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः*।।
अर्थ : ‘गु’ अर्थात अंधकार अथवा अज्ञान एवं ‘रु’ अर्थात तेज, प्रकाश अथवा ज्ञान । इस बातमें कोई संदेह नहीं कि गुरु ही ब्रह्म हैं जो अज्ञानके अंधकारको दूर करते हैं । इससे ज्ञात होगा कि साधकके जीवनमें गुरुका महत्त्व अनन्य है । इसलिए गुरुप्राप्ति ही साधकका प्रथम ध्येय है। गुरुप्राप्तिसे ही ईश्वरप्राप्ति होती है अथवा यूं कहें कि गुरुप्राप्ति होना ही ईश्वरप्राप्ति है अर्थात निरंतर आनंदावस्था । गुरु हमें इस अवस्थातक पहुंचाते हैं। अतः शिष्य के जीवन में गुरुका अनन्यसाधारण महत्त्व है ! हमारे शास्त्रों में कहा गया है-
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः पदम्।
मन्त्रमूलं गुरोवार्र्क्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ॥
अर्थात ध्यान का आश्रयस्थान गुरुमूर्ति है । पूजा का मूलस्थान गुरुचरण, मन्त्र का उगमस्थान गुरुवाक्य एवं मोक्ष का मूल आधार गुरु की कृपा है । गुरु का यह महत्त्व ज्ञात होने पर नर से नारायण बनने में अधिक समय नहीं लगता; क्योंकि गुरु देवता का प्रत्यक्ष सगुण रूप ही होते हैं, इसलिए जिसे गुरु स्वीकारते हैं उसे भगवान भी स्वीकारते हैं एवं उस जीव का अपनेआप ही कल्याण होता है। संत कबीर ने सद्गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है –
बिना गुरु के गति नहीं, गुरु बिन मिले न ज्ञान।
निगुरा इस संसार में, जैसे सूकर, श्वान ॥
अर्थात जिसे श्री गुरु द्वारा ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है, उसके लिए भवसागर को पार करने का कोई भी उपाय नहीं रहता । वह श्रीहरि को भी प्रिय नहीं होता, इसलिए उसका जन्म ही व्यर्थ सिद्ध होता है । भगवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है कि ईश्वर भक्ति की अपेक्षा गुरु भक्ति अधिक श्रेष्ठ है। श्री कृष्ण कहते हैं “मुझे मेरे भक्तों की अपेक्षा गुरु भक्त अधिक प्रिय हैं।” श्री शंकराचार्य जी ने कहा है- ज्ञान दान करनेवाले सद्गुरु को शोभा दे ऐसी उपमा इस त्रिभुवन में कहीं भी नहीं है। उन्हें यदि पारस की उपमा दी जाए तो भी वह कम होगी क्योंकि पारस लोहे को स्वर्णत्व तो देता है; परंतु अपना पारसत्व नहीं दे सकता। सद्गुरु को कल्पवृक्ष कहें तो कल्पवृक्ष हम जो कल्पना करते हैं वह पूरी करता है, परंतु सद्गुरु शिष्य की कल्पना समूल नष्ट करके, उसको कल्पनातीत ऐसी वस्तु प्राप्त करा देते हैं। इसलिए गुरु का वर्णन करने के लिए यह वाणी असमर्थ है।
गुरुपूर्णिमा मनाने का महत्व :
गुरुपूर्णिमाके दिन गुरुतत्त्व १ सहस्त्र गुना कार्यरत होनेसे साधक एवं शिष्य अधिकाधिक लाभ ग्रहण कर पाते हैं । उस दिन ग्रहण किए गए लाभको स्थायी रखनेके लिए केवल एक दिनही नहीं, बल्कि सदैव प्रयत्नरत रहना अत्यावश्यक है । गुरु ईश्वरके सगुण रूप होते हैं । उन्हें तन, मन, बुद्धि तथा धन समर्पित करनेसे उनकी कृपा अखंड रूपसे कार्यरत रहती है।वास्तवतमें गुरुको हमसे कोई भी अपेक्षा नहीं होती; परंतु गुरुके लिए त्याग करनेसे हमें आध्यात्मिक लाभ मिलता है। किसी विषयवस्तुका त्याग करनेसे उसके प्रति व्यक्तिकी आसक्ति घट जाती है । तनके त्यागसे देहभान भी क्षीण होता है एवं देह ईश्वरीय चैतन्य ग्रहण कर पाती है । मनके त्यागसे मनोलय होता है तथा विश्वमनसे एकरूपता साध्य होती है । बुद्धिके त्यागसे व्यक्तिकी बुद्धि विश्वबुद्धिसे एकरूप होती है तथा वह ईश्वरीय विचार ग्रहण कर पाता है । त्यागके माध्यमसे गुरु व्यक्तिके लेन-देनको घटाते हैं। तन, मन एवं बुद्धि की तुलनामें धनका त्याग करना साधक तथा शिष्यके लिए सहजसुलभ होता है।
गुरुपूर्णिमा उत्सव मनानेकी पद्धति :
सर्व संप्रदायोंमें गुरुपूर्णिमा उत्सव मनाया जाता है । यहां महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुरु देहसे भले ही भिन्न-भिन्न दिखाई देते हैं परंतु गुरुतत्त्व तो एक ही है। सभी गुरु, स्थूल शरीर से अलग होते हुए भी, आंतरिक रूप से एक हैं। जिस प्रकार गाय के प्रत्येक थन से एक समान दूध निकलता है, उसी प्रकार प्रत्येक गुरु में गुरुत्व एक समान होता है, तथा उनसे निकलने वाली आनंद की तरंगें भी एक समान होती हैं। गुरुपूजनके लिए सर्वप्रथम चौकीको पूर्व-पश्चिम दिशामें रखिए। जहांतक संभव हो, उसके लिए मेहराब अर्थात लघुमंडप बनानेके लिए केलेके खंभे अथवा केलेके पत्तोंका प्रयोग कीजिए।गुरुकी प्रतिमाकी स्थापना करने हेतु लकडीसे बने पूजाघर अथवा चौकीका उपयोग कीजिए। पूजन करते समय ऐसा भाव रखिए कि हमारे समक्ष प्रत्यक्ष सदगुरु विराजमान हैं। सर्वप्रथम श्री महागणपतिका आवाहन कर देशकालकथन किया जाता है। श्रीमहागणपतिका पूजन करनेके साथ-साथ विष्णुस्मरण किया जाता है।उसके उपरांत सदगुरुका अर्थात महर्षि व्यासजीका पूजन किया जाता है। उसके उपरांत आदि शंकराचार्य इत्यादिका स्मरण कर अपने-अपने संप्रदायानुसार गुरुका पूजन किया जाता है। यहांपर प्रतिमापूजन अथवा पादुकापूजन भी होता है। उसके उपरांत अपने गुरुका पूजन किया जाता है।