नरक चतुर्दशी का महत्व और अध्यात्मशास्त्र :

कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन, राक्षस नरकासुर के वध की स्मृति में, दीपावली के पावन पर्व पर प्रातः सूर्योदय से पहले उठकर अभ्यंग स्नान किया जाता है। इस दिन यमदीपदान किया जाता है तथा ब्राह्मणों को भोजन और वस्त्र दान दिए जाते हैं। इस पर्व का महत्व और इस दिन की जाने वाली क्रियाओं के पीछे का शास्त्र सनातन संस्था द्वारा संकलित इस लेख में प्रस्तुत है।
इतिहास :
‘श्रीमद्भागवत पुराण’ में एक कथा मिलती है –
पूर्वकाल में प्राग्ज्योतिषपुर नामक नगर में भौमासुर या नरकासुर नाम का एक बलशाली असुर राज्य करता था। वह देवों और मनुष्यों को बहुत कष्ट देने लगा। वह दुष्ट राक्षस स्त्रियों को भी सताने लगा। उसने युद्ध में पराजित की गई सोलह सहस्र राजकुमारियों को बंदी बनाकर कारागार में डाल दिया और उनसे विवाह करने का निश्चय किया। इससे चारों ओर हाहाकार मच गया।
जब भगवान श्रीकृष्ण जी को यह समाचार मिला, तो वे सत्यभामा सहित नरकासुर पर आक्रमण करने गए। श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया और सभी राजकुमारियों को मुक्त कराया। मरते समय नरकासुर ने श्रीकृष्ण से वर मांगा –“आज की तिथि पर जो मंगल स्नान करेगा, उसे नरक की यातना न भोगनी पड़े।” भगवान श्रीकृष्ण जी ने उसे यह वरदान दिया।
इसी कारण कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को ‘नरक चतुर्दशी’ कहा जाने लगा, और लोग इस दिन प्रातः सूर्योदय से पहले अभ्यंग स्नान करने लगे। कथा के अनुसार, जब श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया और उसके रक्त का तिलक माथे पर लगाकर घर लौटे, तब माताओं ने उन्हें आलिंगन दिया और स्त्रियों ने दीपक से आरती उतारकर आनंद व्यक्त किया।
*पर्व मनाने की विधि :*
*अभ्यंग स्नान –*
गुढीपड़वा, दीपावली आदि पर्वों पर धर्मशास्त्र में अभ्यंग स्नान करने का विधान है।
अभ्यंग स्नान का अर्थ है – प्रातः काल उठकर सिर और शरीर पर तेल लगाकर फिर गुनगुने पानी से स्नान करना। तेल को शरीर में अच्छी तरह मलकर त्वचा में समाहित करना, फिर गरम पानी से स्नान करना — यही अभ्यंग स्नान कहलाता है। यह पितरों के कल्याण हेतु किया जाने वाला स्नान भी माना गया है।
तारों से युक्त आकाश में ब्रह्ममुहूर्त के समय अभ्यंग स्नान किया जाता है। ‘चिरचिरा ’ नामक वनस्पति की टहनी से सिर से पाँव तक और पुनः सिर तक जल का छिड़काव किया जाता है। यदि यह वनस्पति उपलब्ध न हो, तो भगवान से प्रार्थना कर स्नान करना चाहिए। व्यक्ति को पहले कुमकुम का तिलक लगाया जाता है। फिर शरीर पर ऊपर से नीचे तक तेल लगाया जाता है। इसके बाद तेल और उबटन का मिश्रण शरीर पर लगाया जाता है। तदुपरांत स्त्रियाँ आरती उतारती हैं। इसके बाद गरम पानी से स्नान किया जाता है। फिर चिरचिरा (एक प्रकार की वनस्पति) की टहनी तीन बार शरीर पर घुमाया जाता है। यदि उबटन न मिले, तो नारियल तेल में हल्दी मिलाकर उसका उपयोग किया जाता है।
*अभ्यंग स्नान के शारीरिक और आध्यात्मिक लाभ –*
त्वचा को सदैव स्निग्ध (मुलायम) रखने के लिए तेल लगाया जाता है। गुनगुना पानी मंगलकारी और शरीर को सुखदायक होता है, इसलिए उसी से स्नान किया जाता है। तेल लगाने के बाद स्नान करने से त्वचा और बालों में आवश्यक नमी बनी रहती है।
सामान्य स्नान की तुलना में अभ्यंग स्नान से रज-तम गुण लाखवें भाग तक घटते हैं और सत्त्वगुण उतनी ही मात्रा में बढ़ते हैं।
सामान्य स्नान का प्रभाव लगभग तीन घंटे तक रहता है, जबकि अभ्यंग स्नान का चार से पाँच घंटे तक।
*यमतर्पण –*
अभ्यंग स्नान के बाद अकाल मृत्यु से रक्षा हेतु यमतर्पण करने का विधान है। यह विधि पंचांग में दी गई होती है, उसी के अनुसार करनी चाहिए। इसके पश्चात् मातायें अपने बच्चों का आरती उतारती हैं। कुछ लोग अभ्यंग स्नान के बाद नरकासुर वध के प्रतीक रूप में कारीट (कड़वे फल) को पैर से कुचलते हैं, या उसके रस (रक्त का प्रतीक) को जीभ पर लगाते हैं।
दोपहर में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है और वस्त्रदान किया जाता है। यदि यह संभव न हो, तो किसी धर्मकार्य करने वाली संस्था को दान देना चाहिए। प्रदोष काल में दीपदान किया जाता है। जिसने प्रदोष व्रत लिया हो, वह प्रदोष पूजा तथा शिव पूजा करता है।