रज पर्व : मिट्टी, नारीत्व और स्मृतियों का उत्सव

मिट्टी को समर्पित ओड़िशा का प्रसिद्ध रज पर्व हर वर्ष 14 जून को बड़े उत्साह और पारंपरिक उल्लास के साथ मनाया जाता है। इस पर्व के मूल में यह लोकविश्वास है कि इस दिन धरती माता रजस्वला होती हैं—अर्थात् वे भी उसी शुद्धिकरण और सृजन-चक्र से गुजरती हैं, जिससे नारी गुजरती है। यह पर्व प्रकृति की उर्वरता, मानसून के आगमन और नारीत्व की गरिमा का सामूहिक उत्सव बन गया है।

तीन दिनों तक चलने वाले इस उत्सव का प्रत्येक दिन विशेष महत्व रखता है—पहले दिन को ‘रजो’, दूसरे को ‘मिथुन संक्रांति’, और तीसरे दिन को ‘भूदाहा’ या ‘बासी रज’ कहा जाता है।

यह पर्व मुख्यतः युवतियों और किशोरियों का होता है, जो नये वस्त्र पहनती हैं, श्रृंगार करती हैं, सहेलियों संग झूले झूलती हैं और उल्लासपूर्ण लोकगीतों के माध्यम से प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करती हैं। विशेष रूप से बरगद के वृक्षों पर डाले गए रस्सी के झूलों की परम्परा इस पर्व की आत्मा है। हालाँकि अब शहरी परिवेश में पेड़ों की अनुपस्थिति के कारण पाइपों या लकड़ी की डंडियों पर झूले डालकर फूलों से सजाए जाने की परिपाटी भी प्रचलित हो गई है।

पारंपरिक व्यंजन, विशेष रूप से पोडापीठा, इस पर्व का स्वादात्मक पक्ष है। इसे बड़े प्रेम से पकाया और खाया जाता है, और यह पीढ़ियों को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़ता है।

इस पर्व की स्मृतियाँ आज भी लोगों के मन में गहराई से बसी हैं। जैसे आज सुबह मेरी कामवाली बाई फर्श पर पोंछा लगाते हुए सहसा बोली—
“दीदी, जब मैं चौदह-पंद्रह साल की थी, तो बड़ी बहन के घर जाती थी—कटक के पास चौद्वार ग्राम में। वहाँ आम के पेड़ों पर झूले डाले जाते थे। एक डाल पर पीठा को ऊँचाई पर टांग दिया जाता था, और दूसरी डाल पर रस्सी का झूला होता था। हम झूले की ऊँचाई बढ़ाते, ऊपर तक जाकर मुंँह से उस पीठा को उचक कर खा लेते थे, क्योंकि हाथों से तो रस्सी पकड़े रहते थे। गांँव के लोग तमाशा देखते थे कि कौन इतनी ऊँचाई तक पहुंँच पाएगा। जब मैं सफल होती, सब ताली बजाते थे।

बचपन के वे दिन क्या दिन थे—झूलना, पीठा खाना, घूमना, सजना-संवरना, और हँसी-ठिठोली… जीवन जैसे रंगों से भर उठता था। बड़ी बहन और बहनोई डरते थे कि कहीं गिर न जाऊँ, पर मैं दुबली-पतली चपल थी और पीठा तक पहुंँच ही जाती थी। अब सोचती हूँ तो सब सपना सा लगता है—बस यादें बची हैं। परसों रज है न, तो सब कुछ फिर से याद आ गया। अब तो बेटी और नातिन के लिए ससुराल में सामान भेजना है।”

कहते-कहते वह फिर चुपचाप फर्श चमकाने लग गई—पर उसकी आँखों में बचपन की स्मृतियों की चमक अब भी साफ़ झलक रही थी।

उसकी इस आत्मीय स्मृति-यात्रा को मैंने थोड़ी-सी रिकॉर्डिंग में भी संजोया है। आप भी सुनिए… शायद रज पर्व का यह स्पर्श आपको भी भीतर तक भिगो दे।

पुष्पा सिंघी, कटक

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